ग्लोबल गाँव के देवता / रणेन्द्र
By: रणेन्द्र, Ranendra [लेखक., author.].
Publisher: नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2022Edition: 2nd ed.Description: 100p.ISBN: 9788126351589.Other title: Globa gaon ke devta.Subject(s): जनजाति | भारत -- झारखंड | हिन्दी कथाDDC classification: 891.433 Summary: कथाकार रणेन्द्र का उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के 'देवता' वस्तुतः आदिवासियों वनवासियों के जीवन का सन्तप्त सारांश है। शताब्दियों से संस्कृति और सभ्यता की पता नहीं किस छन्नी से छन कर अवशिष्ट के रूप में जीवित रहने वाले असुर समुदाय की गाथा पूरी प्रामाणिकता व संवेदनशीलता के साथ रणेन्द्र ने लिखी है। 'अनन्य' और 'अन्य' का विभाजन करनेवाली मानसिकता जाने कब से हावी है। आग और धातु की खोज करनेवाली, धातु पिघलाकर उसे आकार देनेवाली कारीगर असुर जाति को सभ्यता, संस्कृति, मिथक और मनुष्यता सबने मारा है। रणेन्द्र प्रश्न उठाते हैं, 'बदहाल ज़िन्दगी गुज़ारती संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन, साहित्यविहीन, धर्मविहीन । शायद मुख्यधारा पूरा निगल जाने में ही विश्वास करती है।... छाती ठोंक ठोंककर अपने को अत्यन्त सहिष्णु और उदार कहनेवाली हिन्दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी भी जगह नहीं छोड़ी थी। वे उनके लिए बस मिथकों में शेष थे। कोई साहित्य नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई अजायबघर नहीं । विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत मात्र भी नहीं।' 'ग्लोबल गाँव के देवता' असुर समुदाय के अनवरत जीवन संघर्ष का दस्तावेज़ है। देवराज इन्द्र से लेकर ग्लोबल गाँव के व्यापारियों तक फैली शोषण की प्रक्रिया को रणेन्द्र उजागर कर सके हैं। हाशिए के मनुष्यों का सुख-दुख व्यक्त करता यह उपन्यास झारखंड की धरती से उपजी महत्त्वपूर्ण रचना है। असुरों की अपराजेय जिजीविषा और लोलुप-लुटेरी टोली की दुरभिसन्धियों का हृदयग्राही चित्रण ।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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NASSDOC Library | 891.433 RAN-G (Browse shelf) | Available | 53467 |
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891.433 NAG-V वरुण के बेटे / | 891.433 PRI-A अल्पविराम / | 891.433 PUS-J झूला नट / | 891.433 RAN-G ग्लोबल गाँव के देवता / | 891.433 REN-R रेनू की चर्चित कहानियाँ / | 891.433 SAU-S संघर्ष का सुख / | 891.433 SHA-S सर्दियों का नीला आकाश / |
Includes bibliographical references and index.
कथाकार रणेन्द्र का उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के 'देवता' वस्तुतः आदिवासियों वनवासियों के जीवन का सन्तप्त सारांश है। शताब्दियों से संस्कृति और सभ्यता की पता नहीं किस छन्नी से छन कर अवशिष्ट के रूप में जीवित रहने वाले असुर समुदाय की गाथा पूरी प्रामाणिकता व संवेदनशीलता के साथ रणेन्द्र ने लिखी है। 'अनन्य' और 'अन्य' का विभाजन करनेवाली मानसिकता जाने कब से हावी है। आग और धातु की खोज करनेवाली, धातु पिघलाकर उसे आकार देनेवाली कारीगर असुर जाति को सभ्यता, संस्कृति, मिथक और मनुष्यता सबने मारा है। रणेन्द्र प्रश्न उठाते हैं, 'बदहाल ज़िन्दगी गुज़ारती संस्कृतिविहीन, भाषाविहीन, साहित्यविहीन, धर्मविहीन । शायद मुख्यधारा पूरा निगल जाने में ही विश्वास करती है।... छाती ठोंक ठोंककर अपने को अत्यन्त सहिष्णु और उदार कहनेवाली हिन्दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी भी जगह नहीं छोड़ी थी। वे उनके लिए बस मिथकों में शेष थे। कोई साहित्य नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई अजायबघर नहीं । विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत मात्र भी नहीं।' 'ग्लोबल गाँव के देवता' असुर समुदाय के अनवरत जीवन संघर्ष का दस्तावेज़ है। देवराज इन्द्र से लेकर ग्लोबल गाँव के व्यापारियों तक फैली शोषण की प्रक्रिया को रणेन्द्र उजागर कर सके हैं। हाशिए के मनुष्यों का सुख-दुख व्यक्त करता यह उपन्यास झारखंड की धरती से उपजी महत्त्वपूर्ण रचना है। असुरों की अपराजेय जिजीविषा और लोलुप-लुटेरी टोली की दुरभिसन्धियों का हृदयग्राही चित्रण ।
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