मल्लिका का रचना-संसार / संकलन-सम्पादन द्वारा वसुधा डालमिया
Contributor(s): डालमिया, वसुधा [संकलन-सम्पादन].
Publisher: दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 2022Description: 158p.ISBN: 9789390971930.Other title: Mallika Ka Rachna Sansar by Vasudha Dalmia.Subject(s): मल्लिका – साहित्यिक योगदान -- आलोचना और व्याख्या -- हिंदी साहित्य | हिंदी कविता और गद्य -- साहित्यिक अध्ययन -- समकालीन हिंदी साहित्य | नारीवादी साहित्य -- महिला लेखन -- साहित्यिक विश्लेषण | भारतीय साहित्य का इतिहास -- हिंदी -- आधुनिक काल | साहित्यिक आलोचना और समीक्षा -- अध्ययन और शोध -- हिंदी साहित्य में स्त्री दृष्टिDDC classification: 891.431 Summary: औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है। पर हमारी परम्परा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है जो स्वतंत्र हो। और स्त्री की बाबत स्मृतियों की राय यही है कि वह बुद्धि और विवेक से रहित है। इसलिए वह स्वतंत्र हुई तो स्वैराचारिणी बनी। बेहतर हो वह पराश्रयी बन कर रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु की रक्षिता मल्लिका का निजी जीवन और उनका यह दुर्लभ कृतित्व इस धारणा को उसी के धरातल में जाकर प्रखर चुनौती देता है। काशी के एक सम्पन्न परिवार के कुलदीपक की रक्षिता यह बांग्ला मूल की महिला 19वीं सदी के समाज में सामाजिक स्वीकार से वंचित रहीं। फिर भी उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और कुछ हद तक भारतेन्दु के साथ रहते हुए उस प्रतिभा के निरन्तर परिष्कार से वह अपने समय के समाज में स्त्री जाति की असली दशा, विशेषकर युवा विधवाओं और किसी भी वजह से समाज की डार से बिछड़ गई औरतों की दुनिया पर निडर रचनात्मक नज़र डाल सकीं। यह आज भी विरल है, तब के युग में तो वह दुर्लभ ही था। —मृणाल पाण्डेItem type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है। पर हमारी परम्परा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है जो स्वतंत्र हो। और स्त्री की बाबत स्मृतियों की राय यही है कि वह बुद्धि और विवेक से रहित है। इसलिए वह स्वतंत्र हुई तो स्वैराचारिणी बनी। बेहतर हो वह पराश्रयी बन कर रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु की रक्षिता मल्लिका का निजी जीवन और उनका यह दुर्लभ कृतित्व इस धारणा को उसी के धरातल में जाकर प्रखर चुनौती देता है। काशी के एक सम्पन्न परिवार के कुलदीपक की रक्षिता यह बांग्ला मूल की महिला 19वीं सदी के समाज में सामाजिक स्वीकार से वंचित रहीं। फिर भी उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और कुछ हद तक भारतेन्दु के साथ रहते हुए उस प्रतिभा के निरन्तर परिष्कार से वह अपने समय के समाज में स्त्री जाति की असली दशा, विशेषकर युवा विधवाओं और किसी भी वजह से समाज की डार से बिछड़ गई औरतों की दुनिया पर निडर रचनात्मक नज़र डाल सकीं। यह आज भी विरल है, तब के युग में तो वह दुर्लभ ही था। —मृणाल पाण्डे
Hindi.
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