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कविता पाठ विमर्श / दिलीप सिंह

By: सिंह, दिलीप.
Publisher: नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2013Description: 144p.ISBN: 9789350725771.Other title: kavita path vimarsh.Subject(s): Hindi Fiction | Hindi LiteratureDDC classification: 891.43 Summary: आज भी हैदराबाद में हिन्दी, उर्दू और दक्खिनी में रचनाशीलता की समानांतर त्रिवेणी प्रवाहित है। बोलचाल में सभी दक्खिनी हिंदी का प्रयोग करते हैं-चाहे वे किसी भी भाषा-समुदाय के सदस्य हों। दक्खिनी अत्यंत मुहावरेदार, विटी और आत्मीयता से भरीपूरी भाषा है। इसमें व्याकरणिक जटिलता नहीं है। समाजभाषावैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो यह विभिन्न भाषा-समुदायों के दैनंदिन व्यवहार की अवमिश्रित भाषा (पिजिन) है। अपने सृजनात्मक रूप में भी यह अति मानक बनने से परहेज करती रही है। ऐसा करके ही यह साहित्य में भी अपने सहज-सलोने रूप को बचाए रख सकी है-सिर्फ़ उसे थोड़ा-सा संवार कर हैदराबाद की हिन्दी कविताई और उर्दू शायरी में आज भी यह सलोनापन कम नहीं हुआ है। इस शहर में एक लम्बे अर्से तक रहने का सौभाग्य मुझे मिला। यहाँ के अदीबों और अदबी शख्सियतों के नज़दीक आने का और इन्हें 'बिटविन द लाइंस' पढ़ने का भी। तभी इस 'पाठ-विमर्श' की मानसिक तैयारी शुरू हुई। साहित्यिक (ख़ासकर कविता) पाठ में अभिव्यंजना के गठन को देखने का प्रयास इस विमर्श के केन्द्र में है। 'शैली' का प्रश्न प्रत्येक रचनाकार को देखने का उद्दीपक बना है। शैली में भाषाविज्ञान की रुचि पिछले कुछ सालों में बहमुखी बनकर सामने आई है जिसने साहित्य समीक्षा को नई दृष्टि दी है। इस पुस्तक में हैदराबाद के लगभग बीस कवियों-शायरों की काव्य-भाषा का शैली (पाठगत) विश्लेषण किया गया है। रोमन याकोब्सन का यह कथन समीचीन है कि-"साहित्यिक कृतियों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन साहित्य शैलीविज्ञान है, यह एक प्रकार से साहित्य समीक्षा ही है।" इस कथन में यह भी जोड़ दें कि इस समीक्षा प्रणाली में पाठ-विश्लेषण का अधिक महत्त्व है। प्रस्तुत ‘कविता पाठ विमर्श' शैली विज्ञान की इसी पाठ-केंद्रित प्रणाली पर आधारित है जिसमें इस प्रणाली का यह लक्ष्य सदा समक्ष रहा है- “एक पाठ की भाषा संरचना तथा प्रसंग, जिसकी अभिव्यक्ति उस पाठ से हुई है, के घटकों के बीच यथोचित रीति से सह-संबंध स्थापित करना।”
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आज भी हैदराबाद में हिन्दी, उर्दू और दक्खिनी में रचनाशीलता की समानांतर त्रिवेणी प्रवाहित है। बोलचाल में सभी दक्खिनी हिंदी का प्रयोग करते हैं-चाहे वे किसी भी भाषा-समुदाय के सदस्य हों। दक्खिनी अत्यंत मुहावरेदार, विटी और आत्मीयता से भरीपूरी भाषा है। इसमें व्याकरणिक जटिलता नहीं है। समाजभाषावैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो यह विभिन्न भाषा-समुदायों के दैनंदिन व्यवहार की अवमिश्रित भाषा (पिजिन) है। अपने सृजनात्मक रूप में भी यह अति मानक बनने से परहेज करती रही है। ऐसा करके ही यह साहित्य में भी अपने सहज-सलोने रूप को बचाए रख सकी है-सिर्फ़ उसे थोड़ा-सा संवार कर हैदराबाद की हिन्दी कविताई और उर्दू शायरी में आज भी यह सलोनापन कम नहीं हुआ है। इस शहर में एक लम्बे अर्से तक रहने का सौभाग्य मुझे मिला। यहाँ के अदीबों और अदबी शख्सियतों के नज़दीक आने का और इन्हें 'बिटविन द लाइंस' पढ़ने का भी। तभी इस 'पाठ-विमर्श' की मानसिक तैयारी शुरू हुई। साहित्यिक (ख़ासकर कविता) पाठ में अभिव्यंजना के गठन को देखने का प्रयास इस विमर्श के केन्द्र में है। 'शैली' का प्रश्न प्रत्येक रचनाकार को देखने का उद्दीपक बना है। शैली में भाषाविज्ञान की रुचि पिछले कुछ सालों में बहमुखी बनकर सामने आई है जिसने साहित्य समीक्षा को नई दृष्टि दी है। इस पुस्तक में हैदराबाद के लगभग बीस कवियों-शायरों की काव्य-भाषा का शैली (पाठगत) विश्लेषण किया गया है। रोमन याकोब्सन का यह कथन समीचीन है कि-"साहित्यिक कृतियों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन साहित्य शैलीविज्ञान है, यह एक प्रकार से साहित्य समीक्षा ही है।" इस कथन में यह भी जोड़ दें कि इस समीक्षा प्रणाली में पाठ-विश्लेषण का अधिक महत्त्व है। प्रस्तुत ‘कविता पाठ विमर्श' शैली विज्ञान की इसी पाठ-केंद्रित प्रणाली पर आधारित है जिसमें इस प्रणाली का यह लक्ष्य सदा समक्ष रहा है- “एक पाठ की भाषा संरचना तथा प्रसंग, जिसकी अभिव्यक्ति उस पाठ से हुई है, के घटकों के बीच यथोचित रीति से सह-संबंध स्थापित करना।”

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