कहना ना होगा: एक दशक की बातसीता, नामवर सिंह के साथ/
Contributor(s): समीक्षा ठाकृर [संकलन सम्पादन].
Publisher: नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2012Description: 272p.ISBN: 9788170553120.Other title: Kahna naa hoga.Subject(s): Indic literature -- Literature | Indian literature -- Literary criticismDDC classification: 891.4309 Summary: हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. नामवर सिंह को पढ़ना यदि साहित्य और जीवन के जटिल रचनात्मक रिश्तों को समझना है, तो उन्हें सुनना इन रिश्तों को परत-दर-परत खुलते हुए देखना। उनकी वाग्मिता का कायल कौन नहीं है, लेकिन संवाद के दौरान तो जैसे उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का अशोक शत-शत फूलों से खिल उठता है। यही कारण है कि पिछले एक दशक में कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना की मौजूदा हालत से लेकर सृजनात्मकता, कला, यथार्थ, परम्परा और समाजवाद के प्रासंगिक तथा आधारभूत प्रश्नों तक अर्थात् देश और दुनिया के लगभग हर साहित्यिक मुद्दे पर किस लेखक से सर्वाधिक संवाद किया गया है, वे हैं नामवर सिंह। इस बीच ये अनेक विवादों के केन्द्र में भी रहे या पूरा सच कहा जाऐ तो उनकी मौलिक और साहसिक स्थापनाओं ने अनेक जरूरी विवादों को उकसाया, जिसके कारण उन्हें कठघरे में खड़ा करने के इच्छुक भी उनसे लगातार जिरह करते रहे हैं। लेकिन नामवर जी ने हर मौके पर बिना विचलित हुए या उत्तेजित हुए अपनी शान्त, संयत और उष्ण शैली में हर प्रश्न का सटीक जवाब दिया है और बातचीत को ऐसे ध्रुवांतों तक ले गये हैं, जहाँ सारे पूर्वग्रह मन्द पड़ जाते हैं और वास्तव का आलोक-विस्फोट-सा होता है। एक साथ कितने विस्तृत सन्दर्भ, कितने अनछुए पहलू और कितने वेधक संकेत । हिन्दी के लगभग दो दर्जन महत्त्वपूर्ण लेखकों और कुछ उत्सुक पत्रकारों से की गयी बातचीत का यह दिलचस्प और विचारोत्तेजक सिलसिला हिन्दी साहित्य के सभी प्रासंगिक पहलुओं को देखने की एक सन्तुलित दृष्टि तो देता ही है, एक निरन्तर विकासशील आलोचक व्यक्तित्व को बहुत करीब से महसूस करने का दुर्लभ अवसर भी।Item type | Current location | Collection | Call number | Status | Date due | Barcode |
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NASSDOC Library | हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह | 891.4309 KAH- (Browse shelf) | Available | 54647 |
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891.43 SIN-H हिंदी भाषा चिंतन/ | 891.43 YAS-J झूठा सच: | 891.4308 SAT-A आज़ाद बचपन की ओर | 891.4309 KAH- कहना ना होगा: | 891.4309 SIN-S सख़ुनतकिया/ by | 891.433 PUS-J झूला नट / | 891.4337 KUR-S समकालीन परिदृश्य और प्रभा खेतान के उपन्यास |
हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. नामवर सिंह को पढ़ना यदि साहित्य और जीवन के जटिल रचनात्मक रिश्तों को समझना है, तो उन्हें सुनना इन रिश्तों को परत-दर-परत खुलते हुए देखना। उनकी वाग्मिता का कायल कौन नहीं है, लेकिन संवाद के दौरान तो जैसे उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का अशोक शत-शत फूलों से खिल उठता है। यही कारण है कि पिछले एक दशक में कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना की मौजूदा हालत से लेकर सृजनात्मकता, कला, यथार्थ, परम्परा और समाजवाद के प्रासंगिक तथा आधारभूत प्रश्नों तक अर्थात् देश और दुनिया के लगभग हर साहित्यिक मुद्दे पर किस लेखक से सर्वाधिक संवाद किया गया है, वे हैं नामवर सिंह। इस बीच ये अनेक विवादों के केन्द्र में भी रहे या पूरा सच कहा जाऐ तो उनकी मौलिक और साहसिक स्थापनाओं ने अनेक जरूरी विवादों को उकसाया, जिसके कारण उन्हें कठघरे में खड़ा करने के इच्छुक भी उनसे लगातार जिरह करते रहे हैं। लेकिन नामवर जी ने हर मौके पर बिना विचलित हुए या उत्तेजित हुए अपनी शान्त, संयत और उष्ण शैली में हर प्रश्न का सटीक जवाब दिया है और बातचीत को ऐसे ध्रुवांतों तक ले गये हैं, जहाँ सारे पूर्वग्रह मन्द पड़ जाते हैं और वास्तव का आलोक-विस्फोट-सा होता है। एक साथ कितने विस्तृत सन्दर्भ, कितने अनछुए पहलू और कितने वेधक संकेत । हिन्दी के लगभग दो दर्जन महत्त्वपूर्ण लेखकों और कुछ उत्सुक पत्रकारों से की गयी बातचीत का यह दिलचस्प और विचारोत्तेजक सिलसिला हिन्दी साहित्य के सभी प्रासंगिक पहलुओं को देखने की एक सन्तुलित दृष्टि तो देता ही है, एक निरन्तर विकासशील आलोचक व्यक्तित्व को बहुत करीब से महसूस करने का दुर्लभ अवसर भी।
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