000 03663nam a2200157 4500
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020 _a9789391950408
082 _a892.47
_bSAG-O
100 _aसागर, दयाशंकर शुक्ल
245 _aऐ फकीरा मान जा
_c/दयाशंकर शुक्ल सागर
260 _aदिल्ली:
_bराधाकृष्ण प्रकाशन,
_c2022.
300 _a152p.
520 _aमन यायावर हो और तन की मजबूरी हो कि एक जरूरी रूटीन से खुद को बाँधे रखे तो यह एक दुखद विडम्बना है। लेकिन कहते हैं कि मन अगर अपनी कामनाओं के पार फैलता ही रहे, इच्छा हर रोज और बलवती होती जाए तो राहों की रुकावटों को भी राह आखिर देनी ही पड़ती है। ये यात्राएँ ऐसे ही यायावर की हैं जिन्हें एक के बाद एक संयोगों ने वह दिया जो उनकी आत्मा चाहती थी यानी सफ़र, घुमक्कड़ी और अब वे यहाँ, इस किताब में, एक चितेरे यात्रावृत्तकार के रूप में उपस्थित हैं। जो उन्होंने देखा, जिनसे वे गुजरे उन्हें उतने ही जीते-जागते स्वरूप में हमारे सामने शब्दों में उकेरते हुए। एशिया, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न देशों की ये यात्राएँ सिर्फ पर्यटन-स्थलों का विवरण नहीं हैं, इतिहास, संस्कृति, समाज, साहित्य और राजनीति का पसमंजर इन वृत्तान्तों को एक सजीव, बहुआयामी लैंडस्केप बनाता है। पता ही नहीं चलता कि पढ़ते-पढ़ते आप कब इन अदेखी गलियों में टहलने लगे जो लेखक के भीतर अब भी अपने शोर और सन्नाटों के साथ जीवित हैं। फ्रांस के राजा की सजा-ए-मौत, नेपोलियन की प्रेमिकाएँ, काफ्का की चिट्ठियाँ, अफ्रीकी नागरिकता वाले अपने को हिन्दुस्तानी बतानेवाले अफ्रीकी, चीन के मकाऊ के जुआघर, अमेरिका के कभी रिटायर न होने वाले और अस्सी से पहले सीनियर सिटीजन नहीं कहलाने वाले लोग, और इन सबको दर्ज करता एक भारतीय मन! इस सफरनामे को पढ़ना एक जीवन्त अनुभव से गुजरना है।
546 _aHindi
650 _aIndian literature
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_cBK