वैशाली की नगरवधू / आचार्य चतुरसेन
By: चतुरसेन, आचार्य | Chatursen, Acharya आचार्य चतुरसेन | Acharya Chatursen [लेखक | Author].
Publisher: प्रयागराज: लोकभारती प्रकाशन, 2022Description: 440p.ISBN: 9789393603364.Other title: Vaishali Ki Nagarvadhu by Acharya Chatursen.Subject(s): आचार्य चतुरसेन – कृतियाँ -- उपन्यास -- हिंदी साहित्य | वैशाली – ऐतिहासिक दृष्टिकोण -- साहित्य में चित्रण -- प्राचीन भारत | भारतीय इतिहास – मौर्य काल (322–185 ई.पू.) -- ऐतिहासिक कथा -- राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य | समाज और संस्कृति – साहित्य में चित्रण -- नारी विमर्श -- गणिका परंपरा और सामाजिक संरचना | हिंदी साहित्य – ऐतिहासिक उपन्यास -- अध्ययन और आलोचना -- भारतीय समाज और संस्कृतिDDC classification: 891.433 Summary: ‘वैशाली की नगरवधू’ की गणना हिन्दी के श्रेष्ठतम ऐतिहासिक उपन्यासों में की जाती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वयं भी इसे अपनी उत्कृष्टतम रचना मानते हुए इसकी भूमिका में लिखा था कि निरन्तर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-सम्पदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूँ; और यह घोषणा करता हूँ कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि सहित आपको भेंट कर रहा हूँ। कथा उस अम्बपाली की है जो शैशवावस्था में आम के एक वृक्ष के नीचे पड़ी मिली और बाद में चलकर वैशाली की सर्वाधिक सुन्दर एवं साहसी युवती के रूप में विख्यात हुई। नगरवधू बनने के अनिवार्य प्रस्ताव को उसने धिक्कृत कानून कहा और उसके लिए वैशाली को कभी क्षमा नहीं कर पाई। लेकिन वह अपने देश को प्रेम भी करती है जिसके लिए उसने अपने निजी सुखों का बलिदान भी किया। और अन्त में अपना सर्वस्व त्यागकर बौद्ध दीक्षा ले ली। कई वर्षों तक आर्य, बौद्ध और जैन साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त और लेखक के तौर पर लम्बे समय में अर्जित अपने भाषा-कौशल के साथ लिखित यह उपन्यास न सिर्फ पाठकों के लिए एक नया आस्वाद लेकर आया बल्कि हिन्दी उपन्यास-जगत में भी इसने अपना एक अलग स्थान बनाया जो आज तक कायम है।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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NASSDOC Library | 891.433 CHT-V (Browse shelf) | Available | 54630 |
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891.433 BHA-E एक अंतहीन युद्ध / | 891.433 BHA-M मैं हार गयी / | 891.433 BHA-S सम्पूर्ण कहानियाँ / | 891.433 CHT-V वैशाली की नगरवधू / | 891.433 GAN-V विमुक्त जंजातियाँ: | 891.433 GAR-M मैं और मैं / | 891.433 KAL-K कल परसों के बरसों |
‘वैशाली की नगरवधू’ की गणना हिन्दी के श्रेष्ठतम ऐतिहासिक उपन्यासों में की जाती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वयं भी इसे अपनी उत्कृष्टतम रचना मानते हुए इसकी भूमिका में लिखा था कि निरन्तर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-सम्पदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूँ; और यह घोषणा करता हूँ कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि सहित आपको भेंट कर रहा हूँ। कथा उस अम्बपाली की है जो शैशवावस्था में आम के एक वृक्ष के नीचे पड़ी मिली और बाद में चलकर वैशाली की सर्वाधिक सुन्दर एवं साहसी युवती के रूप में विख्यात हुई। नगरवधू बनने के अनिवार्य प्रस्ताव को उसने धिक्कृत कानून कहा और उसके लिए वैशाली को कभी क्षमा नहीं कर पाई। लेकिन वह अपने देश को प्रेम भी करती है जिसके लिए उसने अपने निजी सुखों का बलिदान भी किया। और अन्त में अपना सर्वस्व त्यागकर बौद्ध दीक्षा ले ली। कई वर्षों तक आर्य, बौद्ध और जैन साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त और लेखक के तौर पर लम्बे समय में अर्जित अपने भाषा-कौशल के साथ लिखित यह उपन्यास न सिर्फ पाठकों के लिए एक नया आस्वाद लेकर आया बल्कि हिन्दी उपन्यास-जगत में भी इसने अपना एक अलग स्थान बनाया जो आज तक कायम है।
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