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खांटी घरेलू औरत / By ममता कालिया

By: ममता कालिया.
Publisher: नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2009Edition: 2nd.Description: 104p.ISBN: 9789387155374.Other title: Khanti Gharelu Aurat.Subject(s): Hindi Literature | Hindi FictionDDC classification: 891.43108 Summary: एक लेखक का रचाव और सृजन-माटी जिन तत्वों से बनती है उनमें गद्य, पद्य और नाट्य की समवेत सम्भावनायें छुपी रहती हैं। ममता कालिया ने अपनी रचना-यात्रा का आरंभ कविता से ही किया था। इन वर्षों में वे कथाजगत में होने 56 के बावजूद कविता से अनुपस्थित नहीं रही हैं। प्रस्तुत कविता-संग्रह 'खाँटी घरेलू औरत' उनकी इधर के वर्षों में लिखी गई ताज़ा कविताओं को सामने लाता है। खाँटी घरेलू औरत उनके जेहन में महज़ 1 एक पात्र नहीं वरन् एक विराट प्रतीक है जीवन के उस फ्रेम का जिसमें हर्ष और विषाद, आल्हाद और उन्माद, प्रेम और प्रतिरोध, सुख और असंतोष कभी अलग तो कभी गड्ड-मड्ड दिखाई देते हैं। शादी की अगली सुबह हर स्त्री खाँटी घरेलू की जमात में शामिल हो जाती है। इस सच्चाई में ही दाम्पत्य का सातत्य है। ममता कालिया की कविताओं की अंतर्वस्तु हमेशा उनका समय और समाज रही है। सचेत संवेदना, मौलिक कल्पना, अकूत ऊर्जा और अचूक दृष्टि से तालमेल से ममता का कविजगत निर्मित होता है। इन रचनाओं में जीवनधर्मिता और जीवन में संघर्षधर्मिता का स्वर सर्वोपरि है। इसलिये ये कविताएँ संवाद भी हैं और विवाद भी। इनमें चुनौती और हस्तक्षेप, स्वीकार और नाकार, मौन और सम्बोधन, सब सम्मिलित हैं। विवाह और परिवार के वर्चस्ववादी चौखटे, स्त्री की नवचेतना से टकरा कर दिन पर दिन कच्चे पड़ रहे हैं। स्त्री और पुरुष की पारस्परिकता एक अनिर्णीत शाश्वतता है जिसमें समता और विषमता घुली मिली रहती हैं। खाँटी घरेलू औरत इन सब स्थितियों का जायज़ा लेती है।
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एक लेखक का रचाव और सृजन-माटी जिन तत्वों से बनती है उनमें गद्य, पद्य और नाट्य की समवेत सम्भावनायें छुपी रहती हैं। ममता कालिया ने अपनी रचना-यात्रा का आरंभ कविता से ही किया था। इन वर्षों में वे कथाजगत में होने 56 के बावजूद कविता से अनुपस्थित नहीं रही हैं। प्रस्तुत कविता-संग्रह 'खाँटी घरेलू औरत' उनकी इधर के वर्षों में लिखी गई ताज़ा कविताओं को सामने लाता है। खाँटी घरेलू औरत उनके जेहन में महज़ 1 एक पात्र नहीं वरन् एक विराट प्रतीक है जीवन के उस फ्रेम का जिसमें हर्ष और विषाद, आल्हाद और उन्माद, प्रेम और प्रतिरोध, सुख और असंतोष कभी अलग तो कभी गड्ड-मड्ड दिखाई देते हैं। शादी की अगली सुबह हर स्त्री खाँटी घरेलू की जमात में शामिल हो जाती है। इस सच्चाई में ही दाम्पत्य का सातत्य है। ममता कालिया की कविताओं की अंतर्वस्तु हमेशा उनका समय और समाज रही है। सचेत संवेदना, मौलिक कल्पना, अकूत ऊर्जा और अचूक दृष्टि से तालमेल से ममता का कविजगत निर्मित होता है। इन रचनाओं में जीवनधर्मिता और जीवन में संघर्षधर्मिता का स्वर सर्वोपरि है। इसलिये ये कविताएँ संवाद भी हैं और विवाद भी। इनमें चुनौती और हस्तक्षेप, स्वीकार और नाकार, मौन और सम्बोधन, सब सम्मिलित हैं। विवाह और परिवार के वर्चस्ववादी चौखटे, स्त्री की नवचेतना से टकरा कर दिन पर दिन कच्चे पड़ रहे हैं। स्त्री और पुरुष की पारस्परिकता एक अनिर्णीत शाश्वतता है जिसमें समता और विषमता घुली मिली रहती हैं। खाँटी घरेलू औरत इन सब स्थितियों का जायज़ा लेती है।

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