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सख़ुनतकिया/ by नामवर सिंह

By: सिंह, नामवर Namwar Singh [author].
Publisher: नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2021Description: 163p.ISBN: 9789390678358.Other title: Sakhuntakiya.Subject(s): Hindi literature -- हिंदी साहित्य -- History and criticism -- इतिहास और आलोचना -- Literature and society -- साहित्य और समाज -- India -- भारत | Literary criticism -- साहित्यिक आलोचना -- Essays -- निबंध -- Postcolonialism in literature -- साहित्य में उत्तर उपनिवेशवाद -- India -- भारतDDC classification: 891.4309 Summary: मुझे साहित्य-क्षेत्र में चुनाव नहीं जीतना है जो फड़कता घोषणा-पत्र तैयार कर दूँ। अपनी सीमाओं से अपरिचित नहीं हूँ। जीवन-संघर्ष में बिना कूदे पोथियों के बल अधिक दिन तक कविता न लिखी जायेगी। काग़ज़ की नाव सागर में न चलेगी-बँधे तालाब में भले ही गाजे। जन-आन्दोलन से उठे हुए ताज़े कच्चे भाव तथा ताज़ी कच्ची भाषा ही नये साहित्य में मूर्तिमान होगी। उसी आग में पिघल पर पोथियों का ज्ञान नये रूप में ढलेगा। मुझे इतनी तुकबन्दी के बाद भी कवि-केवल कवि रूप में पैदा होने और जीवित रहने का मुगालता नहीं है। गद्य या पद्य जिस किसी भी माध्यम से मेरा अभिप्रेत फूट निकलना चाहेगा, फूटेगा। इस जन-संघर्ष में मानवता के हमराहियों को बल देने के लिए अपने को निःशेष करना ही सूझ रहा है। दूसरा कोई रास्ता नहीं। बात बड़ी चाहिए, माध्यम स्वयं उसका आकार और महिमा पा लेगा। साफ़ दिख गया है कि गद्य लिखने से कविता को नयी ताक़त मिलती है अन्यथा अपना सारा वक्तव्य एक कविता में भरने से दोनों की हानि होती है। हमारे कई साथी आज कल यही कर रहे हैं। यदि मुझे अपने वक्तव्य को कविता के चौखटे में काटना पड़ेगा तो वह चौखटा छोड़ दूँगा लेकिन वक्तव्य को पुरानी चीनी नारी का पाँव न बनाऊँगा। पाब्लो नेरूदा और जाफरी को पढ़ने के बाद भी अभी नहीं लिखा कि कहीं उनका उपहास न हो उठे। हमेशा की तरह आज भी कविता को गँदला करने की अपेक्षा कविता न रचने का साहस है। साथियों के उपहास की उतनी चिन्ता नहीं जितनी आत्म-उपहास की-अपने लक्ष्य के प्रति उपहास की। यदि मनुष्य के क्षीण शरीर में अनुराग-रंजित धरती का रस खींच कर दे सका; उसकी मानसिक नीरसता में विविध सामाजिक सम्बन्धों की सरसता दे सका; यदि उसके असन्तोष को स्वस्थ संयम तथा दृढ़ता दे सका तो अतीत से निचोड़कर, वर्तमान से दुहकर, भविष्य को चीरकर देने की कोशिश करूँगा। इस संघर्ष में भले ही यह कवि टूट जाय-जाय
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Books Books NASSDOC Library
हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह 891.4309 SIN-S (Browse shelf) Available 54681

मुझे साहित्य-क्षेत्र में चुनाव नहीं जीतना है जो फड़कता घोषणा-पत्र तैयार कर दूँ। अपनी सीमाओं से अपरिचित नहीं हूँ। जीवन-संघर्ष में बिना कूदे पोथियों के बल अधिक दिन तक कविता न लिखी जायेगी। काग़ज़ की नाव सागर में न चलेगी-बँधे तालाब में भले ही गाजे। जन-आन्दोलन से उठे हुए ताज़े कच्चे भाव तथा ताज़ी कच्ची भाषा ही नये साहित्य में मूर्तिमान होगी। उसी आग में पिघल पर पोथियों का ज्ञान नये रूप में ढलेगा। मुझे इतनी तुकबन्दी के बाद भी कवि-केवल कवि रूप में पैदा होने और जीवित रहने का मुगालता नहीं है। गद्य या पद्य जिस किसी भी माध्यम से मेरा अभिप्रेत फूट निकलना चाहेगा, फूटेगा। इस जन-संघर्ष में मानवता के हमराहियों को बल देने के लिए अपने को निःशेष करना ही सूझ रहा है। दूसरा कोई रास्ता नहीं। बात बड़ी चाहिए, माध्यम स्वयं उसका आकार और महिमा पा लेगा। साफ़ दिख गया है कि गद्य लिखने से कविता को नयी ताक़त मिलती है अन्यथा अपना सारा वक्तव्य एक कविता में भरने से दोनों की हानि होती है। हमारे कई साथी आज कल यही कर रहे हैं। यदि मुझे अपने वक्तव्य को कविता के चौखटे में काटना पड़ेगा तो वह चौखटा छोड़ दूँगा लेकिन वक्तव्य को पुरानी चीनी नारी का पाँव न बनाऊँगा। पाब्लो नेरूदा और जाफरी को पढ़ने के बाद भी अभी नहीं लिखा कि कहीं उनका उपहास न हो उठे। हमेशा की तरह आज भी कविता को गँदला करने की अपेक्षा कविता न रचने का साहस है। साथियों के उपहास की उतनी चिन्ता नहीं जितनी आत्म-उपहास की-अपने लक्ष्य के प्रति उपहास की। यदि मनुष्य के क्षीण शरीर में अनुराग-रंजित धरती का रस खींच कर दे सका; उसकी मानसिक नीरसता में विविध सामाजिक सम्बन्धों की सरसता दे सका; यदि उसके असन्तोष को स्वस्थ संयम तथा दृढ़ता दे सका तो अतीत से निचोड़कर, वर्तमान से दुहकर, भविष्य को चीरकर देने की कोशिश करूँगा। इस संघर्ष में भले ही यह कवि टूट जाय-जाय

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