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एक अंतहीन युद्ध / लेखक राजेंद्र मोहन भटनागर

By: भटनागर, राजेंद्र मोहन [लेखक.].
Publisher: दिल्ली: अनन्या प्रकाशन, 2018Description: 208p.ISBN: 9789387145368.Subject(s): राजेंद्र मोहन भटनागर -- कृतियाँ -- हिंदी साहित्य | हिंदी उपन्यास -- कथा साहित्य -- सामाजिक और राजनीतिक थीम | भारतीय साहित्य -- हिंदी -- समकालीन साहित्य | युद्ध और संघर्ष -- साहित्य -- हिंदी कथा साहित्य | साहित्यिक विश्लेषण -- अध्ययन -- हिंदी उपन्यासDDC classification: 891.433 Summary: भारत के इतिहास में मध्यकालीन युग अन्यन्त महत्त्वपूर्ण है । विशेषतया यह युग मुगल और मेवाड़ के संघर्ष और प्रेम का रहा है । जहाँ निरंकुश शासक अकबर ने ‘आरोपित शासन’ को ‘सम्मति शासन’ में बदल कर राजतन्त्र को एक सर्वथा नवीन गरिमापूर्ण और उदारनीति की दिशा प्रदान की, वहाँ मेवाड़पति महाराणा प्रताप ने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए समग्र जीवन समर्पित करने का अप्रतिम उद्धरण प्रस्तुत किया है । यद्यपि इन तथ्यों के संबंध में विद्वान इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है तथापि इन सबके उपरान्त भी न महान अकबर अपने पद से छोटा हो पाया है और न स्वतन्त्रता का अलख जगाने वाला मेवाड़पति महाराणा प्रताप अपनी गरिमा से तनिक भी पीेछे हट सका है । यथार्थत% सोलहवीं शताब्दी भारत के इतिहास में ऐसा संक्रान्ति काल सिद्ध हुआ है जिससे राष्ट्रीय और जन–जीवनीय चेतना में गम्भीर और सार्थक उद्वेलन हुआ है । आश्चर्य तब होता है, जब मानव होने या सिद्ध करने की कथा को समीक्षक महामानव से जोड़ने लगते हैं । वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हंै कि सम्राट अकबर और स्वतन्त्रता के उद्भट योद्धा महाराणा प्रताप की समग्र गाथा मानव बनने की कथा है, महामानव बनने का इतिहास नहीं । दोनों ने ‘सम्राटत्व’ की आरोपित गरिमा का ध्वंस किया है और दोनों ने जनजीवन से सम्बद्ध होने का प्रयास किया है । दोनों ने जनचेतना को अपने ढंग से प्रभावित किया है । वह मानव जो मानव होते हुए भी मानव नहीं है, जब अपने में से किसी को मानवोचित आधार पर जीने के लिए संघर्ष करता पाता है, तब विचलित हो उठता है और उस पावन गंगा को जनजीवन में न बहने देने के लिए प्रयास करता है । ‘महामानव’ उसी का प्रतिफल है । अन्ततोगत्वा मानव है क्या! इसी का उत्तर देने की चेष्टा मात्र है ।
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891.433 BHA-E (Browse shelf) Available 54579

Includes bibliography and index.

भारत के इतिहास में मध्यकालीन युग अन्यन्त महत्त्वपूर्ण है । विशेषतया यह युग मुगल और मेवाड़ के संघर्ष और प्रेम का रहा है । जहाँ निरंकुश शासक अकबर ने ‘आरोपित शासन’ को ‘सम्मति शासन’ में बदल कर राजतन्त्र को एक सर्वथा नवीन गरिमापूर्ण और उदारनीति की दिशा प्रदान की, वहाँ मेवाड़पति महाराणा प्रताप ने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए समग्र जीवन समर्पित करने का अप्रतिम उद्धरण प्रस्तुत किया है । यद्यपि इन तथ्यों के संबंध में विद्वान इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है तथापि इन सबके उपरान्त भी न महान अकबर अपने पद से छोटा हो पाया है और न स्वतन्त्रता का अलख जगाने वाला मेवाड़पति महाराणा प्रताप अपनी गरिमा से तनिक भी पीेछे हट सका है । यथार्थत% सोलहवीं शताब्दी भारत के इतिहास में ऐसा संक्रान्ति काल सिद्ध हुआ है जिससे राष्ट्रीय और जन–जीवनीय चेतना में गम्भीर और सार्थक उद्वेलन हुआ है । आश्चर्य तब होता है, जब मानव होने या सिद्ध करने की कथा को समीक्षक महामानव से जोड़ने लगते हैं । वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हंै कि सम्राट अकबर और स्वतन्त्रता के उद्भट योद्धा महाराणा प्रताप की समग्र गाथा मानव बनने की कथा है, महामानव बनने का इतिहास नहीं । दोनों ने ‘सम्राटत्व’ की आरोपित गरिमा का ध्वंस किया है और दोनों ने जनजीवन से सम्बद्ध होने का प्रयास किया है । दोनों ने जनचेतना को अपने ढंग से प्रभावित किया है । वह मानव जो मानव होते हुए भी मानव नहीं है, जब अपने में से किसी को मानवोचित आधार पर जीने के लिए संघर्ष करता पाता है, तब विचलित हो उठता है और उस पावन गंगा को जनजीवन में न बहने देने के लिए प्रयास करता है । ‘महामानव’ उसी का प्रतिफल है । अन्ततोगत्वा मानव है क्या! इसी का उत्तर देने की चेष्टा मात्र है ।

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